जैसलमेर का झरोखों का शहर

:: जैसलमेर का परिचय ::

प्राचीन शहर किले के नीचे भी शहर के चारों तरह बड़ी चोड़ी तथा 20 फीट की ऊँची दीवारों का परकोटा बना हुआ है । दीवार के परकोटे में सो - सो मीटर की दूरी पर सुरक्षा द्रष्टि से चारों तरह बुर्ज बने हुए है । जिनमे सैनिक रहते थे । परकोटे की दीवार में चारों दीशाओ में प्रोले बनी हुई थी जिनके बड़े -बड़े लकड़ी के दरवाजे लगे हुए है । पूर्व में गड़ीसर की प्रोल पश्चिम में अमर सागर की प्रोल , उतर में मूल तालाब की प्रोल , किशन घाट की प्रोल दक्षिण में बासियों की प्रोल थी । इन प्रोलों को रात में बंद करने पर शहर में कोई परवेश नहीं कर सकता था । बड़े दुर्भाग्य की बात है की इस परकोटे की दीवार के पत्थरों को ले जाकर लोगों ने अपने मकान का निर्माण करवाया । किले के रंग महल , मोतीमहल , राजविलास में स्थापत्य कला बारीक़ खुदाई की कारीगरी देखने योग्य है । पटूओ की हवेलीयां कला की श्रेष्ठतम स्मारक है जो अब राष्ट्रीय ईमारत के रूप में सुरक्षित है । नथमल व् सालिम सिंह दीवानों की हवेलिया कला की श्रेष्ठतम स्मारक है । मेहता की हवेलियाँ सात पत्थरों से निर्मित कोरानी वाले पत्थर कमल नुमा गवाक्ष उन पर नाचते मयूरों की कृति अत्यंत चित आकर्षक है । रेगिस्तान के बीच ऐसा अप्रतिम सोंद्रय कपडे की कशीद्कारी की तरह बेजोड़ है । सारी बनावट चिकने पीले पत्थर की है । जो सूर्य की आभा में और द्विगनित हो जाती है । जैसलमेर जिले में जैन मंदिरों के स्तंभ , तोरण द्वार , गोमुख  ,सिखर ध्वज तो है ही शहर में एक ऐसा घर नहीं है जिसमे सुन्दर जाली या ग्वाक्ष विध्यमान न हो । यदि इस शहर को झरोंखो का का नगर कहा जाये तो अतिश्योक्ति नहीं है । मंदिर , महलों में नक्काशी व् बारीक़ कारीगरी का ऐसा भव्य रूप है की पत्थर भी बोल उठता है ।

समूचे भारत में जैसलमेर नगर में जैन धर्म के प्रख्यात एव अनेक दुर्लभ ग्रन्थ है जो संस्कृत , मगधी ,ब्रज आदि भाषाओँ में है । जैन मंदिर पार्शवनाथ जी का मंदिर जिसकी परतिष्ठा लगभग संवत १४७३ में हुई थी । जिसको बनाने में लगभग १० साल लगे । किले में ही अवस्थित है । जैन मंदिर के साथ ही एक देवी मंदिर है जहा वर्ष में दो बार मेला लगता है । वीर भाटी राजपूतों की कर्म स्थली जैसलमेर जिस पर गौरी , खिलजी , मुग़ल, बलोचियों द्वारा कब्ज़ा करने की अनवरत कोशिशों के बावजूद तथा दुर्दान्त आक्रमण कारियों द्वारा नगर के सोंदर्य वैभव को बार -बार लुटने व् नष्ट करने धूलधूसरित करने में कोई कसर नहीं छोड़ने के बावजूद आज भी अपनी उन्नत वास्तुकला की बदोलत अक्षुण है । त्रिकोण पहाड़ी पर ९९ बुर्ज वाला अपराजय दुर्ग जिसका एक -एक पत्थर भाटी राजपूतों के बलिदान की गाथाएं कह रहा है । यह नगर १८ मई १९४७ ईस्वी में पोकरण में प्रथम भारतीय आवणिक विस्फोट के कारण संसार प्रसिद्ध हो गया । विशाल मरुस्थल के पास अवस्थित पीले पत्थर बसा नगर जिसका पीला संगमरमर पत्थर जो विश्व प्रसिद्ध है । तथा इसके हाबुर ( पूनम नगर ) गाँव रक्तिम आभा वाला रेशेदार पत्थर आज भी ताजमहल व् सीकरी में उज्जवलता की कहानी कह रहा है । लुद्र्वा के इर्द गिर्द के घेरे में प्राचीन देवालय , मठ , खंडहर , अवस्थित है । जिनमे रामकुण्डा , भीमगोडा , बैसाखी , ब्रहासर अपने में अनेक गाथाएं संजोये हुए है ।




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