तनोट माता का परिचय और उनके चमत्कार

:: मातेश्वरी तनोट राय का परिचय और चमत्कार ::

(आवड़ माता) का मंदिर है। तनोट माता को देवी हिंगलाज माता का एक रूप
माना जाता है। हिंगलाज माता शक्तिपीठ वर्तमान में पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत
के लासवेला जिले में स्थित है। भाटी राजपूत नरेश तणुराव ने तनोट को अपनी राजधानी बनाया था। उन्होंने विक्रम संवत 828 में माता तनोट राय का मंदिर बनाकर मूर्ति को स्थापित किया था। भाटी राजवंशी और जैसलमेर के आस-पास के इलाके के लोग पीढ़ी दर
पीढ़ी तनोट माता की अगाध श्रद्धा के साथ उपासना करते रहे। कालांतर में भाटी राजपूतों ने अपनी राजधानी तनोट से हटाकर जैसलमेर ले गए परंतु मंदिर तनोट में
ही रहा। तनोट माता का यह मंदिर यहाँ के स्थानीय निवासियों का एक पूज्यनीय स्थान हमेशा से रहा परंतु 1965 को भारत-पाक युद्ध के दौरान जो चमत्कार देवी ने दिखाए उसके बाद तो भारतीय सैनिकों और सीमा सुरक्षा बल के जवानों की श्रद्धा का विशेष केन्द्र बन गई। सितम्बर 1965 में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध शुरू हुआ। तनोट पर आक्रमण से पहले शत्रु (पाक) पूर्व में किशनगढ़ से 74 किमी दूर बुइली तक पश्चिम में साधेवाला से
शाहगढ़ और उत्तर में अछरी टीबा से 6 किमी दूर तक कब्जा कर चुका था। तनोट तीन
दिशाओं से घिरा हुआ था। यदि शत्रु तनोट पर कब्जा कर लेता तो वह रामगढ़ से लेकर
शाहगढ़ तक के इलाके पर अपना दावा कर सकता था। अत: तनोट पर अधिकार
जमाना दोनों सेनाओं के लिए महत्वपूर्ण बन गया था।
17 से 19 नवंबर 1965 को शत्रु ने तीन अलग-अलग दिशाओं से तनोट पर भारी आक्रमण किया। दुश्मन के तोपखाने जबर्दस्त आग उगलते रहे।तनोट की रक्षा के
लिए मेजर जय सिंह की कमांड में 13 ग्रेनेडियर की एक कंपनी और
सीमा सुरक्षा बल की दो कंपनियाँ दुश्मन की पूरी ब्रिगेड का सामना कर रही थी। शत्रु
ने जैसलमेर से तनोट जाने वाले मार्ग को घंटाली देवी के मंदिर के समीप
एंटी पर्सनल और एंटी टैंक माइन्स लगाकर सप्लाई चैन को काट दिया था।
दुश्मन ने तनोट माता के मंदिर के आस-पास के क्षेत्र में करीब 3 हजार गोले बरसाएँ पंरतु
अधिकांश गोले अपना लक्ष्य चूक गए। अकेले मंदिर को निशाना बनाकर करीब 450गोले
दागे गए परंतु चमत्कारी रूप से एक भी गोला अपने निशाने पर नहीं लगा और मंदिर
परिसर में गिरे गोलों में से एक भी नहीं फटा और मंदिर को खरोंच तक
नहीं आई। सैनिकों ने यह मानकर कि माता अपने साथ है,कम संख्या में होने के बावजूद पूरे आत्मविश्वास के साथ दुश्मन के हमलों का करारा जवाब दिया और उसके
सैकड़ों सैनिकों को मार गिराया। दुश्मन सेना भागने को मजबूर हो गई। कहते हैं
सैनिकों को माता ने स्वप्न में आकर कहा था कि जब तक तुम मेरे मंदिर के परिसर
में हो मैं तुम्हारी रक्षा करूँगी। सैनिकों की तनोट की इस शानदार विजय को देश के तमाम अखबारों ने अपनी हेडलाइन बनाया। एक बार फिर 4 दिसम्बर 1971 की रात को पंजाब रेजीमेंट की एक कंपनी और सीसुब की एक कंपनी ने माँ के आशीर्वाद से
लोंगेवाला में विश्व की महानतम लड़ाइयों में से एक में पाकिस्तान की पूरी टैंक रेजीमेंट
को धूल चटा दी थी। लोंगेवाला को पाकिस्तान टैंकों का कब्रिस्तान बना दिया था। 1965
के युद्ध के बाद सीमा सुरक्षा बल ने यहाँ अपनी चौकी स्थापित कर इस मंदिर
की पूजा-अर्चना व व्यवस्था का कार्यभार संभाला तथा वर्तमान में मंदिर का प्रबंधन और संचालन सीसुब की एक ट्रस्ट द्वारा किया जा रहा है। मंदिर में एक छोटा संग्रहालय भी है जहाँ पाकिस्तान सेना द्वारा मंदिर परिसर में गिराए गए वे बम रखे हैं जो नहीं फटे थे।
सीसुब पुराने मंदिर के स्थान पर अब एक भव्य मंदिर निर्माण करा रही है। लोंगेवाला विजय के बाद माता तनोट राय के परिसर में एक विजय स्तंभ का निर्माण किया, जहाँ हर वर्ष 16 दिसम्बर को महान सैनिकों की याद में उत्सव मनाया जाता है। हर वर्ष आश्विन और चैत्र नवरात्र में यहाँ विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। अपनी दिनों दिन बढ़ती प्रसिद्धि के कारण तनोट एक पर्यटन स्थल के रूपमें भी प्रसिद्ध
होता जा रहा है। इतिहास: मंदिर के वर्तमान पुजारी सीसुब में हेड काँस्टेबल कमलेश्वर मिश्रा ने मंदिर के इतिहास के बारे में बताया कि बहुत पहले मामडिया नाम के एक चारण थे। उनकी कोई संतान नहीं थी। संतान प्राप्त करने की लालसा में उन्होंने हिंगलाज शक्तिपीठ की सात बार पैदल यात्रा की। एक बार माता ने स्वप्न में आकर उनकी इच्छा पूछी तो चारण ने कहा कि आप मेरे यहाँ जन्म लें। माता कि कृपा से चारण के
यहाँ 7 पुत्रियों और एक पुत्र ने जन्म लिया। उन्हीं सात पुत्रियों में से एक आवड़ ने विक्रम
संवत 808 में चारण के यहाँ जन्म लिया और अपने चमत्कार दिखाना शुरू किया।
सातों पुत्रियाँ देवीय चमत्कारों से युक्त थी। उन्होंने हूणों के आक्रमण से माड़ प्रदेश
की रक्षा की। काँस्टेबल कालिकांत सिन्हा जो तनोट चौकी पर पिछले चार साल से पदस्थ हैं कहते हैं कि माता बहुत शक्तिशाली है और मेरी हर मनोकामना पूर्ण करती है। हमारे सिर पर हमेशा माता की कृपा बनी रहती है। दुश्मन हमारा बाल भी बाँका नहीं कर सकता है। माड़ प्रदेश में आवड़ माता की कृपा से भाटी राजपूतों का सुदृढ़ राज्य स्थापित हो गया। राजा तणुराव भाटी ने इस स्थान को अपनी राजधानी बनाया और आवड़ माता को स्वर्ण सिंहासन भेंट किया। विक्रम संवत 828 ईस्वी में आवड़ माता ने अपने भौतिक शरीर के रहते हुए यहाँ अपनी स्थापना की। विक्रम संवत 999 में सातों बहनों ने तणुराव के पौत्र सिद्ध देवराज, भक्तों, ब्राह्मणों, चारणों, राजपूतों और माड़ प्रदेश के अन्य लोगों को बुलाकर कहा कि आप सभी लोग सुख शांति से आनंद पूर्वक अपना जीवन बिता रहे हैं अत: हमारे अवतार
लेने का उद्देश्य पूर्ण हुआ। इतना कहकर सभी बहनों ने पश्चिम में हिंगलाज माता की ओर देखते हुए अदृश्य हो गईं। पहले माता की पूजा साकल दीपी ब्राह्मणकिया करते थे। 1965 से माता की पूजा सीसुब द्वारा नियुक्त पुजारी करता है।
!!! जय माता दी !!! जय आंबे माँ !!! जय माँ दुर्गे !!!

  जैसलमेर में भारत पाक सीमा पर बने तनोट माता के मंदिर से भारत पाकिस्तान युद्ध की कई अजीबोगरीब यादें जुडी हुई है। यह मंदिर भारत ही नहीं बल्कि पाकिस्तानी सेना के फौजियों के लिये भी आस्था का केन्द्र रहा है।सीमावर्ती जैसलमेर जिले में भारत पाक सीमा पर बना तनोट माता का मंदिर अपने आप में एक अद्भुद मंदिर कहा जाता है जैसलमेर में पाकिस्तानी सीमा से सटे इस इलाके में तनोट माता का मंदिर यहां के लोगों की आस्था का केन्द्र तो है ही, भारत व पाक की पिछली लडाईयों का मूक गवाह भी है। 1965 के भारत पाक युद्ध से माता की कीर्ती और अधिक बढ गई जब पाक सेना ने हमारी सीमा के अन्दर भयानक बमबारी करके लगभग 3000 हवाई और जमीनी गोले दागे लेकिन तनोट माता की कृृपा से किसी का बाल भी बांका नहीं हुआ। पाक सेना 4 किलोमीटर अंदर तक हमारी सीमा में घुस आई थी पर युद्ध देवी के नाम से प्रसिद्ध इस देवी के प्रकोप से पाक सेना को न केवल उल्टे पांव लौटना पडा बल्कि अपने सौ से अधिक सैनिकों के शवों को भी छोड कर भागना पडा। माता के बारे में कहा जाता है कि युद्ध के समय माता के प्रभाव ने पाकिस्तानी सेना को इस कदर उलझा दिया था कि रात के अंधेरे में पाक सेना अपने ही सैनिकों को भारतीय सैनिक समझ कर उन पर गोलाबारी करने लगे और परिणाम स्वरूप स्वयं पाक सेना द्वारा अपनी सेना का सफाया हो गया। इस घटना के गवाह के तौर पर आज भी मंदिर परिसर में 450 तोप के गोले रखे हुए हैं। यहां आने वाले श्रद्धालुओं के लिये भी ये आकर्षण का केन्द्र है।1971 के युद्ध में भी पाक सेना ने किशनगढ पर कब्जे के लिये भयानक हमला किया था परन्तु 65 की ही तरह उन्हें फिर से मुह की खानी पडी। माता की शक्ति को देखकर पाक सेना के कमाण्डर शहनवाज खां ने युद्ध समाप्ति के बाद भारत सरकार से माता के दर्शन की इजाजत मांगी व ढाई वर्ष बाद इजाजत मिलने पर शहनवाज खां ने माता के दर्शन कर यहां छत्र चढाया।लगभग 1200 साल पुराने तनोट माता के मंदिर के महत्व को देखते हुए बीएसएफ ने यहां अपनी चौकी बनाई है, इतना ही नहीं बीएसएफ के जवानों द्वारा अब मंदिर की पूरी देखरेख की जाती है, मंदिर की सफाई से लेकर पूजा अर्चना और यहां आने वाले श्रद्धालुओं के लिये सुविधाएं जुटाने तक का सारा काम अब बीएसएफ बखूबी निभा रही है। वर्ष भर यहां आने वाले श्रद्धालुओं की जिनती आस्था इस मंदिर के प्रति है उतनी ही आस्था देश के इन जवानों के प्रति भी है जो यहां देश की सीमाओं के साथ मंदिर की व्यवस्थाओं को भी संभाले हुए है।तनोट माता के प्रति आम लोगों के साथ साथ सैनिकों की भी जबरदस्त आस्था है, श्रद्धालु यहां अपनी मनोकामनाओं को लेकर दर्शन करने के लिये आते हैं और अपनी मनोकामनाओं को पूरा होते थी देखते हैं। इस मूल मंदिर के पास में श्रद्धालुओं ने रूमालों का शानदार मंदिर बना रखा है जो देखते ही बनता है। इस मंदिर में आने वाला हरेक श्रद्धालु अपनी मनोकामना की पूर्ती के लिये यहां रूमाल अवश्य बांधते हैं और मनोकामनाओं की पूर्ती के बाद इस खोलने के लिये भी आते हैं। इस प्रकार यहां प्रतिदिन आने वाले श्रद्धालुओं की बढती संख्या के कारण 50 हजार से भी अधिक रूमाल यहां बंधे है।भारत पाकिस्तान के बीच रिश्ते चाहे जैसे भी हो, एक दूसरे के जवान एक दूसरे के खून के प्यासे ही सही लेकिन इतनी कडवाहट के बीच भी माता तनोट के इस मंदिर में सरहद व मजहब सभी फासले भुला कर लोग श्रद्धा के साथ सर झुकाते है। 
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